किरदार - 1 अंतरंग कहानी

खान मार्केट के ब्लू कैफ़े में उसे पहली बार देखा कला प्रदर्शनी के चित्रों को गौर से देखते, जैसे रंगों की जुबां समझने की कोशिश कर रही हो, बुक रीडिंग के बीच सर हिलाते, जैसे शब्दों को पी रही हो, तब उसकी गंभीरता और आत्मविश्वास उसके

व्यक्तित्व से बिल्कुल मेल खाता नहीं लगा।

शहद सी गहरी सुनहरी भूरी आँखें, बायें गाल पर पड़ता गहरा सा गड्ढा, सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक और ऊँची ऐड़ी के सैण्डिल पहने रक्तिम गौर वर्ण की वह लड़की मुझे कुछ अलग सी दिखी, नज़र उसके चेहरे पर जाकर चिपक गई।

उसे देखते ही मन में ख्याल आया- कमबख्त लुक्स के मामले में कितनी लकी है ! ऐसा परफेक्ट और स्लट्री लुक कहाँ देखने को मिलता है। सुबोध साथ होते तो मुझे चिड़ाने के लिए यही कहते। हो सकता है उनकी बात सुन कर मैंने उन्हें हलके से

चिकोटी भी काट ली होती।

मन भी कितना नासमझ होता है मेरी उम्र क्या अब अपने से आधी उम्र की लड़की से रश्क करने की है?

अपने आप पर मुस्कराते हुए मैं उठी और अपनी किताबें सँभालते हुए बाहर आ गई।

दिल्ली की ठण्ड दिन पर दिन सुस्त पड़ती जा रही है दो चार दिन धुंध पड़ती है और बिस्तर से बाहर निकलने का टाइममेज बिगड़ जाता है। सुबोध के ऑफिस की सालाना कांफ्रेंस हर साल की तरह इस बार भी मुझे दिल्ली ले आई है।

मुंबई वाले ठंड के लिए तरस जाते है और मैं तो खास कर दिल्ली आने के बहाने ढूंढती हूँ इस बार सुबोध की कंपनी ने सालाना कोंफ्रेंस के लिए सपत्नीक निमंत्रण दिया तो मैं कहाँ मुंबई में टिकने वाली थी।

सुबोध ने तो यों ही पूछा था- इस बार की एन्युअल कोंफ्रेंस में सपत्नीक निमंत्रण है, तुम चलोगी?

और मैंने झट से हाँ कर दी, यह कहते हुए कि मेरे कौन से बच्चों के एक्जाम है जो मैं नहीं जाऊँगी, मैं साथ चल रही हूँ पर तुम मेरी तरफ से बेफिक्र रहना, मैं बोर होने की शिकायत नहीं करुँगी, आर्ट गैलेरी, कॉफ़ी शॉप और किताबें मेरा मन बहला

देंगी फिर शॉपिंग तो मेरा मनपसंद टाइम पास है ही।

सुबोध मुस्कुरा भर दिए, उन्हें पता था कि मेरे साथ चलने का मतलब था कि उनकी ड्रिंकिंग और स्मोकिंग पर मेरी पहरेदारी कायम रहेगी और वो टूर की बदोलत मिलने वाली छूट से महरूम रह जायेंगे।

अभी दो ही दिन गुज़रे थे मेरे पास दो दिन का वक्त और है किताबों की सूचि में अभी भी कुछ खरीददारी बाकी है जिन्हें दुकानदार ने कल तक मंगा कर देने का वादा किया है। सोचा कल आऊँगी और कैफ़े में होने वाली बुक रीडिंग में भी शामिल

हो जाऊँगी।

सुबोध से तो 8 बजे तैयार मिलना होगा।

अगले दिन जब कैफ़े पहुँची तो सभी कुर्सियाँ पहले से ही भरी हुई थी, कोने में एक खाली कुर्सी दिखाई दी, साथ की कुर्सी पर वही शहद सी भूरी एक जोड़ी आँखें फिर नज़र आई, कुछ अच्छा सा लगा, मैं चल कर वहाँ पहुँची तो उसने पास पड़ी

खाली कुर्सी की तरफ इशारा कर दिया, मैं बैठ गई।

हमारी आँखों में कल की आधी अधूरी पहचान की परछाई बाकी थी। वह शायद अपना भविष्य फल पढ़ने में डूबी थी- 2012 वृश्चिक राशि वालों का भविष्य कल की तारीख में जिंदगी का रंग क्या होगा, आज ही तलाश लेने की कोशिश कम से कम

मुझे तो नहीं भाती।

“ओह तो आप स्कोर्पियन हैं?” न जाने कैसे मेरे मुँह से निकल गया।

वह मुस्कराई और बोली- क्या आप भी?

“नहीं नहीं ! मेरा बर्थ साइन लिब्रा है।” मैंने बताया।

इतने में कैफ़े के एक लड़के ने घंटी बजाते हुए सबका ध्यान अपनी ओर खींचा, उसका कहना था कि आज की बुक रीडिंग किसी कारणवश स्थगित की जा रही है और नई तारीख तय होते ही सबको सूचित किया जायेगा।

“अब आई हूँ तो कॉफ़ी का एक दौर तो चल ही सकता है !” ऐसा सोचते हुए मैंने अपने लिए केपेचिनो का ऑर्डर दे दिया।

वह अपने भविष्य में कॉफ़ी की चुस्कियों के साथ लौट गई।

मन में उससे बात करने की चाह जागी- चलो, दोस्ती ही करते हैं।

मैं उससे बात करने का बहाना ढूंढने लगी, उसका पढ़ना जारी था, बीच-बीच में वह दीवार पर लगे चित्रों को देख कर कुछ कुछ सोचने के लिए रूकती।

“आप चित्रकार हैं?” मैंने कॉफ़ी का घूंट भरते हुए पूछा।

वह मुस्कराई पर चुप रही।

“क्या पत्रकार हैं?” मैंने फिर पूछा।

उसने नहीं के अंदाज़ में सर हिलाया और दीवार पर निगाह टिकाती हुई बोली- चलिए बताती हूँ।

“अगर में कहूँ कि मैं हाई क्लास कम्पेनियन का जॉब करती हु तो आप क्या कहेंगी?”

“कम्पेनियन?” मैं चौंकी, अब इतनी अंग्रेजी तो आती है कि कम्पेनियन का मतलब समझ सकूँ। मतलब समझ में आने के बावजूद मैंने दोहराया- कम्पेनियन मतलब साथी?

“सही समझी आप ! बस यही मेरा काम है।”

“यह कैसा काम हुआ? तुम मजाक कर रही हो ! सच बताओ न, कहाँ काम करती हो?” में आप से तुम पर उतर आई थी।

“सच ही तो बता रही हूँ आप शायद समझ कर भी समझना नहीं चाह रही ! मैं पुरुषों को कम्पनी देने का काम करती हूँ, या यह कह लीजिये में उन्हें एस्कोर्ट करती हूँ।”

“एस्कोर्ट करना? कंपनी देना? यह कैसा काम है?”

वह फिर सिर्फ मुस्करा भर दी उस मुस्कराहट को समझना मुश्किल था।

“वर्किंग गर्ल तो समझ में आता है पर एस्कोर्ट करना या कम्पनी देना समझ में नहीं आता !” मैं शायद उसे कुरेदने लगी थी।

“आपकी समझ के मुताबिक मैं शायद कॉलगर्ल हो सकती हूँ।” इस बार उसके चेहरे पर मुस्कराहट की जगह गंभीरता उतर आई थी।

मुझे जोर का झटका लगा, मैं पता नहीं कैसा महसूस करने लगी मुँह में कड़वाहट सी घुल गई, एक पल को हाथ पैर ठण्डे पड़ गए, मैं अपने आपको समेटने लगी, मेरी साड़ी के पल्लू का एक कोना जो अभी तक उसके घुटने को छू रहा था, उसे

समेटना चाहा, जैसे कहीं कोई गंदगी न छू जाये !

हमारे बीच चुप्पी पसर गई।

उसकी कमान सी भवें, भरी लम्बी पलकें, गालों की लाली, होंठों के किनारों पर आकर रुकी हुई रंगत, सभी कुछ नकली लगने लगा।

वह मुस्कुराई और बोली- मेरा बमशेल-लुक अब आपको बुरा लग रहा है न?

उसकी आवाज़ में लिप्त सवाल मुझे फ़िर चौंका गया। कैफ़े की दीवार पर लगे आदमकद शीशे में मैंने अपनी शक्ल देखी, क्या मेरा चेहरा इतना बोलता है जो इसने मेरे मन में उठी बात इतनी जल्दी भांप ली?

मुझे लगा इस मेज पर बैठने की गलती की, अकेली किसी मेज पर बैठती तो शायद यह दिक्कत पेश नहीं आती। अब एकदम यहाँ से उठना बदतमीजी होगी पर यह खुद कौन सी शरीफ है?

मैंने मन ही मन सोचा, समझ नहीं आया कि तरस खाऊँ या नफरत ?

कुछ भी नहीं सूझा पर मेरे अन्दर की औरत की जिज्ञासा बढ़ गई, पूछ बैठी- ऐसा कैसे हुआ? मुझे विश्वास नहीं होता कि तुम ऐसा काम करती हो। इतनी शालीन, सलीकेदार लड़की ऐसी जिंदगी कैसे जी सकती है?

वह मुस्कराई और बोली- क्यूँ? आपको मुझमें कुछ बुराई लगती है? अब क्या आपको मुझसे बदबू आ रही है? एम आई स्टिन्किग?

“तुम यह काम क्यों कर रही हो? महज पैसे के लिए? क्या पैसा ही तुम्हारे लिए सब कुछ है?”

“मैं इस प्रोफेशन में पैसे और सेक्स के लिए नहीं आई इसका उन्माद और अनुभव मुझे यहाँ तक खींच लाया !”

“और तुम्हारे ग्राहक?”
“प्लीज़ ! इस घटिया शब्द का इस्तेमाल न करें ! मैं ग्राहकों से नहीं क्लाइंट्स से डील करती हूँ।”

“हे भगवान ! यह लड़की है या तूफ़ान?”

मेरी निगाहें उस पर टिकी रही यह जानने की लालसा में कि वह आगे क्या बोलेगी।

पर मैं अपने आप को ज्यादा रोक न सकी और पूछ बैठी- पर कौन किसे चुनता है?

“मैं अपने क्लाइंट्स खुद चुनती हूँ। क्लाइंट्स आकर्षक पुरुष होते हैं, ज्यादा से ज्यादा 35 से 40 तक के ! जैसे एक मल्टीनेशनल बैंक का कंट्री हैड जो अब बहुत अच्छा दोस्त है, बॉलीवुड के एक प्रोड्यूसर को भी कम्पनी देती हूँ, एक सॉफ्टवेयर

कम्पनी का चीफ एक्जिक्यूटिव है, कुछ और भी हैं, उनकी कम्पनी के खर्चे इतने बड़े होते हैं कि मैं भी एक खर्च की तरह उनकी कम्पनी के खाते में खप जाती हूँ और उनके लिए मुझे मेरे खर्चे समेत छिपा पाना कोई मुश्किल नहीं !”

“वैसे तुम उन्हें कितनी महंगी पड़ती हो?”

यह सवाल पूछते समय मुझे अपने आप पर घिन आई !

वह मुस्कराई- कम से कम 50000 और दो दिन की बुकिंग ज़रूरी है। रोज़ रोज़ कोई तंग न करे इसलिए फ़ीस ज्यादा रखी है। महीने में एक अपॉयन्टमेंट काफी है, हफ्ते में एक क्लाइंट से निपटने लगी तो यह सब रूटीन बन जायेगा और रूटीन से

बोरियत होती है। यह तो आप मानेंगी ही !”

“बदतमीज़, खुले आम धंधा करती है और बात रूटीन और बोरियत की करती है? करतूतें चुड़ैलों जैसी और मिजाज परियों से?”

“तुम्हें नहीं लगता, तुम कुछ गलत कर रही हो?”

“क्यूँ? क्या गलत है इसमें? कम से कम इतनी तो हिम्मत रखती हूँ कि जो करती हूँ, उसे स्वीकार करती हूँ, मैं अपने क्लाइंट्स के साथ समय बिताने की ही तो कीमत लेती हूँ, लाइफ स्टाइल और सेक्स इस पैकेज का हिस्सा है। अपनी इस

कामुकता और उत्तेजना को खुद एन्जॉय करती हूँ, इसे आप मेरा नशा कह सकती हैं।”

“क्या कभी किसी से मन से नहीं जुड़ी?”

“भावुकता में बहने लगी तो तबाह हो जाऊँगी मैं ! मैंने अपने लिए खुद ही रुल-बुक बनाई है, जैसे अपने पैसों के लेनदेन का हिसाब मैं खुद करुँगी, मन को किसी भी कीमत पर कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगी और किसका साथ देना है, यह फैसला मेरा

अपना होगा।”

वह सहजता से अपनी बात कहती रही, इस घटियापन में भी वह चुनने के हक़ की बात का बखान शान से कर गई, यह देख कर मैं दंग थी।

“तो चुनती कैसे हो?”

“मैं मिलने से पहले अपने क्लाइंट्स से खुल कर बात करती हूँ।”

“एक बार की बातचीत में क्या पता चलता है?”

“एक बार नहीं, मैं कई बार बात करती हूँ, इमेल से बात होती है, चैट करती हूँ, उसकी फोटो मेल पर मंगवा कर देखती हूँ, केमेस्ट्री समझती हैं आप? जब मुझे आदमी की केमेस्ट्री अपने से मेल खाती लगती है, तभी उससे मिलने के लिए राज़ी होती

हूँ, वरना वहीं चैप्टर क्लोज़ कर देती हूँ और फिर बात खत्म ! मैं स्टुपिड चक्करों से दूर रहती हूँ !”

“पर तुम तो पढ़ी लिखी लगती हो, और तुम्हारे शौक भी पढ़े लिखे लोगों के से हैं।” हमारे बीच की बातचीत धीरे धीरे रफ़्तार पकड़ने लगी थी।

“तो क्या आप समझती हैं कि यह काम सिर्फ अनपढ़ औरतों के हिस्से ही आता है?” मेरे चेहरे पर उतरी मासूमियत की खिल्ली उड़ाते हुए उसने पूछा।

“यह बात नहीं, पर तुम मुझे कहीं से भी मजबूर नहीं लगती फिर यह सब क्यों? शादी क्यों नहीं करती? शादी के बाद सेटल हो जाओगी तो खुश रहोगी।”

“मेरे ख्याल से शादी लोगों को सेटल कम और अनसेटल ज्यादा करती है !” मेरे आसपास का अनुभव तो कम से कम यही कहता है ! रिश्ते में पत्नी सिर्फ बार्बी डॉल की तरह तोड़ी-मरोड़ी जाती है। पर आप नहीं समझेंगी !”

“क्यों नहीं समझूंगी? एक तरफ अपने को कम्पेनियन कहती हो, एक तरफ एस्कोर्ट बताती हो, इसमें समझने को रखा ही क्या है?” मैंने अपनी किताबें समेटते हुए कहा।

“बाई द वे, मैंने एम.बी.ए किया है और अर्थशास्त्र में एम ए भी हूँ।”

“तो फिर यह सब किसलिए?” मैंने कुर्सी से उठते हुए कहा मेरी आवाज़ में एक झिड़की थी, पता नहीं किस हक़ से मैं उस पर अपनी नाराजगी ज़ाहिर कर गई।

वह मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींच कर वापिस बिठाते हुए बोली- बैठिए, आपसे बात करना मुझे अच्छा लग रहा है !”

उसने अपना पर्स खोला और नेल फाइलर निकाल कर हल्के से अपने नाखूनों को आकार देने लगी।

“आपको बुरा तो नहीं लगेगा यदि मैं नेल फाइल करते हुए आपसे बात करूँ?”

“अब बुरा क्या लगेगा?” मैंने मन ही मन कहा पर वह फिर भांप गई- छोड़िए, नहीं करती ! बेड मैनर्स !

कहते हुए उसने नेल फाइलर वापस पर्स में डाला और अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर मेरे कॉफ़ी के खाली कप के पास रख दिया।

कार्ड पर खूबसूरत लिखावट में लिखा था- कारा बोस

मुझे अचानक महसूस हुआ कि हम एक दूसरे का नाम भी नहीं जानते हैं पर पता नहीं कैसी बातों के चक्रव्यूह में फंस चुके हैं। सुबोध ठीक ही कहते हैं कि बतियाने का मेरा यह शौक मुझे कभी बड़ा मंहगा पड़ेगा।

“तुम मुझे अनु कह सकती हो !” कार्ड हाथ में लेकर उसे करीब से देखने के बाद मैंने बैठते हुए कहा।

अपनी पहचान की परछाई को भी मैं उससे छिपा कर रखना चाहती थी।

“यह मेरी ही लिखावट है।” उसने मुस्कराते हुए बताया।

मेरी निगाह उसकी उँगलियों पर से गुज़र गई !

उसकी आँखों में झांकते हुए मैंने पूछा- पहल कैसे होती है?

“मैं जिस किसी पुरुष से मिलती हूँ वे कम से कम इतने शालीन तो होते ही हैं कि सेक्स का ज़िक्र न करें। अगर सिर्फ सेक्स ही उनके दिमाग पर हावी है तो वे किसी को भी घंटे भर के लिए भाड़े पर ला सकते हैं।”

“तुम्हें नहीं लगता कि तुम ज़रूरत से ज्यादा नखरे करती हो?”

“आपको ऐसा क्यों लगता है?”

मेरे सवाल के जवाब में उसने सवाल कर दिया लेकिन फिर खुद ही बोलने लगी- मेरे पास दिमाग व शरीर दोनों हैं, मैं अपनी बुद्धि पहले बेचती हूँ और शरीर बाद में ! मैं 5 भाषाएँ बोल सकती हूँ, चायनीज़ सीख रही हूँ, आजकल इसकी मांग है, रोज़

अखबार व पत्रिकाएँ पढ़ती हूँ, जिस किसी व्यक्ति से मिलने का मन बनाती हूँ तो पहले उसके बिजनेस को गहराई से समझती हूँ ताकि मिलने पर उसकी समस्याओं पर बात कर सकूँ और हो सकता है उसे कुछ सलाह भी दे सकूँ।”

“तुम क्या सलाह दोगी?”

“आप मुझे पूरी तरह नकारात्मक दृष्टि से देख रही हैं !”

“तुम्हारा अन्दर सकारात्मक है क्या? यह तो पता चले !” मेरी खीज उससे छिपी नहीं रही।

“आप मानेंगी नहीं पर मेरे कई क्लाइंट्स तो ऐसे है जो मुझे कई बार दोहरा चुके हैं।”

“तुम्हारी इस शक्ल और शरीर के लिए ही ना?!!?”

“जी नहीं ! अक्ल के लिए !” उसने गर्दन ऊँची करके कहा।

“क्या निरे बेवकूफ हैं जो बार-बार तुमसे अक्ल मांगने चले आते हैं? उल्लू का मांस खाते होंगे !” गुस्से में मेरे मुँह से निकल गया।

“जी नहीं, उनमें से ज़्यादातर तो वेजिटेरियन हैं।”

“तो क्या तुम्हारे पास प्रवचन सुनने आते हैं?”

“आप जो भी समझें, पर ये सभी अपनी परेशानियों का पुलिंदा मेरे सामने खोल कर बैठ जाते हैं, कोई अपने व्यक्तिगत जीवन का दुखड़ा बखानता है तो कोई करियर का तनाव शेयर करता है। यहाँ तक कि कभी कभी उनकी कम्पनी के मार्केट

शेयर के उतार चढ़ावों का रोना भी मैं सुनती हूँ !”

“तुम्हारा पहला अनुभव?” मैं न चाहते हुए भी उसे कुरेदने लगी।

“अब आप मुझे समझने लगी हैं, पर पहली ही मुलाक़ात में सब कुछ जान लेना चाहती हैं !”

“तो दूसरी मुलाकात की गुंजाईश है?”

“क्यों नहीं ! अगर आप मुझसे मिलना चाहे तब ! पर आपको तो वैसे भी मुझसे मिलने से परहेज़ होगा !”

मेरे पास एक मिनट के लिए जवाब नहीं था इसलिए बात पलटते हुए पूछा- इंडिया से बाहर भी जाती हो?”

“जाना पड़ता है ! फेमिली वालों को कंट्री में रहकर घर से ज्यादा दिन दूर रहना मुश्किल हो जाता है, बीवियाँ शक करने लगती हैं।”

“उन्हें इस शक से बचाने के लिए विदेश यात्रा करती हो?”

“करनी पड़ती है ! कभी कभी किसी की समस्या इतनी बड़ी होती है कि बीवियों के पास सुनने का वक्त नहीं होता !”

“और तुम्हारे पास स्पेशल कान हैं?”

वह पूरी बेतकल्लुफी के साथ हंस दी।

“तुम्हें पहचाने जाने का डर नहीं लगता?”

“डर किस बात का? और वैसे भी डरना सिर्फ वक्त से चाहिए, वक्त अपने साथ बहुत समझदारी लाता है, डर से तो मेरे क्लाइंट्स भरे होते हैं, सभी अपने आप से ज्यादा प्यार करते हैं, किसी दूसरे को प्यार करने के लिए हिम्मत चाहिए, जो किसी

में देखने को नहीं मिलती, कभी कभी मुझे लगता है कि मैं उनकी साइकोथेरेपिस्ट बन गई हूँ ! इतना सब करने के बाद भी आपको लगता है कि मैं मर्द को लूटती हूँ या मेरा साथ मंहगा है?”

“पर बेचती तो आखिर शरीर ही हो।”

“यह आप सोचती हैं, मैं नहीं ! वैसे एक बात कहूँ, आप भी बहुत स्मार्ट हैं, पता नहीं मैं आपसे इतना कुछ कैसे कह गई ! आप क्या करती हैं?”

अब मेरी बारी थी, मैंने कोरेपन से कहा- कुछ ख़ास नहीं ! हाउसवाइफ हूँ, थोड़ा बहुत लिखने का शौक रखती हूँ, बच्चों के लिए कहानियाँ लिखती हूँ।

“तो क्या आप मेरे ऊपर भी कहानी लिखेंगी? मैं नहीं चाहती कि मेरी कहानी मुझसे ज्यादा पाप्युलर हो जाये !”

“तो क्या तुम मानती हो कि तुम पोप्युलर हो?”

“हाँ, क्यों नहीं? तभी तो अपने बूते पर निज जिंदगी जीने में कामयाब हूँ !”

“इसे तुम कामयाब जिंदगी मानती हो? थोड़ी नहीं, पूरी बेवकूफ हो।”

मेरी बात उसे बिल्कुल बुरी नहीं लगी, कुछ सोचते हुए बोली- अच्छा बताइए, अब फिर कब मिलना होगा?
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